Saturday, October 30, 2010

लक्ष्मी पूजन

ऋग्वेद के अनुसार कर्मयोग के धरातल पर काम के फूल, अर्थ के पौधों पर ही खिलते है। धन, संपत्ति, ऐश्वर्य, सम्मान आदि अर्थ के वे स्वरूप हैं, जो कर्मयोग के भंवर में फंसे जीवन में हर पल संघर्ष पैदा करते हैं। इस सृष्टि में धन, संपन्नता, यश आदि का नियंत्रण महालक्ष्मी के तेज में निहित हैं। वास्तुशास्त्र के अनुसार लक्ष्मी केवल उन्हीं घरों में निवास करती है, जो पंचतत्वों-जल, वायु, पृथ्वी, आकाश और अग्नि के सात्विक प्रकाश में हर पल जगमगाते हैं और दीपावली की रात्रि वह पुण्यकाल है, जो किसी जातक को कार्तिक कृष्णपक्ष की

अमावस्या के अंधकार में अपने घरों को दीपमालाओं से रोशन कर धन की देवी को प्रसन्न करने का सुअवसर प्रदान करता है। कहा जाता है कि दीपावली के दिन भगवान विष्णु ने राक्षस बालि का वध कर लक्ष्मी को मुक्त कराया था। इसी दिन समुद्र मंथन से कमल की गोद में प्रकट होकर लक्ष्मी ने समूचे जगत को धन और, ऐश्वर्य के अप्रतिम सौंदर्य से जगमगा दिया था। पुराणों के अनुसार दीपावली के दिन मध्यरात्रि के पश्चात महालक्ष्मी पृथ्वी पर विचरण करती हैं तथा अदृश्य द्वार से उन घरों में प्रवेश करती है, जो दीपमालाओं के प्रकाश में उनका स्वागत श्रद्वा से करते हैं।


नवरात्र के बाद दीपावली का स्वागत श्रद्वा से करते हैं। नवरात्र केबाद दीपावली का आगमन होता है, जो दरअसल शृंखला है उन पांच पर्वों की जिनका महत्व आयु, स्वास्थ्य, वैभव, ज्ञान, भक्ति व मोक्ष प्राप्ति कामना से जुड़ा है। घमंड के प्रतीक रावण के वध में पश्चात मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का दीपमालाओं के प्रकाश में स्वागत इस पर्व का मूल केंद्र है। भगवान महावीर को मोक्ष इसी दिन प्राप्त हुआ था। सिखों के छठे गुरू हरगोविंद सिंह साहिब ने ग्वालियर के किले से 52 हिंदू राजाओं को इसी दिन मुक्त कराया था। सिख समुदाय के लोग वीर गुरू को बंदी छोड़ दाता के रूपमें दीये जला कर याद करते है। दीपावली दीपों कर अग्नि में छिपे कर्मयोग की शक्ति का पर्व है। यह पर्व है काल के भाल पर आर्थिक संपन्नता की ज्योति जलाने का । मृत्युलोक को यह वरदान प्राप्त है कि जो मानव कार्तिक शुक्ल की घोर अमावस्या के अंधकार में महाप्रदोष अथवा महानिशीथ काल में जगमगाती दीपमालाओं के बीच घी के पांच दीप जलाकर महालक्ष्मी की आरधना श्रद्वा से करेगा, उसके जीवन में हर्ष, उल्लास, धन आदि का अभाव कभी नहीं रहेगा। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार स्थायी संपन्नता के लिए लक्ष्मी का पूजन स्थिर लग्न में ही किया जाना चाहिए।

ज्योतिपर्व दीपावली का अस्तित्व अनेक गाथाओं तथा आध्यात्मिक ज्ञान की गहराइयों में छिपा है। पांच पर्वों के इस महासंगम का प्रारंभ होता है-धनवन्तरी त्रयोदशी या धनतेरस से । धन का यह पर्व जीवन में स्वास्थ्य व समृद्घि का प्रतीक है। धनतेरस के अगले दिन आता है यमराज को प्रसन्न करने का पर्व नरक चतुर्दश। कहते हैं कि सतयुग के राजा रांतिदेव ने नरक के श्राप से बचने के लिए पृथ्वी पर घोर तप कर इस दिन यमराज को प्रसन्न किया था। इसके अगले दिन कार्तिक कृष्णपक्ष अमावस्या की रात्रि को दीयों के प्रकाश में लक्ष्मीपूजन किया जाता है, परंन्तु विष्णु के बिना लक्ष्मी अस्थिर रहती हंै, इसलिए दीपावली के अगले दिन कार्तिक शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को महाविष्णु के सम्मान में अन्नकूट का पर्व मनाया जाता है। पांच पर्वों की इस अद्भुत शृंखला का आखिरी पड़ाव है- भैया दूज। भाई-बहन के स्नेह के इस पर्व को यम-द्वितीया भी कहा जाता है। यम के वरदान के अनुसार जो भाई इस दिन अपनी बहन को प्रसन्न करता है, वह मानव योनि में यम की यातनाओं मृत्यु तुल्य कष्टों से मुक्त हो जाता है।

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